शिव पुराण: बिंधेश्वर संहिता , अध्याय 1- 5

पहला अध्याय

“सूतजी से मुनियों का तुरंत पापनाश करने वाले साधन के विषय में प्रश्न”

व्यास जी कहते हैं:
जहां गंगा और यमुना का संगम है — वह पुण्यस्थल प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग कहलाता है — वहाँ एक बार महान मुनियों ने एक विशाल ज्ञान यज्ञ का आयोजन किया।

इस यज्ञ की महिमा सुनकर, व्यास जी के शिष्य और पुराणों के महाज्ञाता सूत जी वहाँ मुनियों के दर्शन हेतु पहुँचे। सभी मुनियों ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया और कहा:


“हे रोमहर्षण सूत जी!
आप भाग्यशाली हैं जिन्होंने स्वयं व्यास जी से पुराण-विद्या प्राप्त की।
आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपने हमें दर्शन दिए।आपका यहाँ आगमन कल्याणकारी ही होगा। कृपया, हमारे आग्रह पर, शुभ और अशुभ तत्वों का वर्णन करें —
क्योंकि हम बार-बार सुनकर भी तृप्त नहीं होते।”


मुनियों ने कलियुग के भयावह लक्षणों का चित्रण किया:
“जब कलियुग आएगा तो मनुष्य पुण्यकर्म से विमुख होकर पाप में डूब जाएगा।
लोग पराई स्त्रियों में आसक्त होंगे, हिंसा करेंगे, मूर्ख और नास्तिक हो जाएंगे।वेदों द्वारा स्थापित वर्णाश्रम धर्म समाप्त हो जाएगा।
हर वर्ग का व्यक्ति अपने धर्म से भटक जाएगा — और यह सामाजिक विघटन पूरे समाज का पतन कर देगा।

ब्राह्मण लोभी बनेंगे, क्षत्रिय अधर्म में लिप्त होंगे, वैश्य धनलालची और कपटी बन जाएंगे,
और शूद्र अपने धर्म से हटकर केवल दिखावे में रम जाएंगे।
स्त्रियाँ भी पतिव्रता धर्म छोड़कर उग्र, अपवित्र भोजन करने वाली और परिवार में कलह फैलाने वाली बन जाएंगी।


“हे सूत जी!” मुनियों ने कहा, “जब समाज धर्महीन हो जाएगा, परिवार टूट जाएंगे, और
प्रकृति भी आपदाओं से लोगों का विनाश करेगी — तब ऐसा कौन-सा उपाय होगा
जिससे ये पापों में डूबे लोग लोक-परलोक की उत्तम गति पा सकें?

“कृपया कोई ऐसा धर्ममार्ग बताइए, जिससे इन सबका उद्धार हो सके।
परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है, और निष्काम सेवा हृदय को शुद्ध कर परमगति प्रदान करती है।
आप समस्त सिद्धांतों के ज्ञाता हैं — कृपा करके उपाय बताइए!”


व्यास जी कहते हैं:
मुनियों की यह बात सुनकर, सूत जी ने अंतर्मन में परम देवता भगवान शंकर का स्मरण किया,
और फिर उत्तर देने के लिए शांत स्वर में बोले…


विद्येश्वर संहिता : दूसरा अध्याय

“शिव पुराण का परिचय और महिमा”

सूत जी बोले:
“हे साधुजनों! आपने जो प्रश्न पूछा है, वह न केवल उचित है बल्कि तीनों लोकों के लिए हितकारी भी है।
आप सभी के प्रेम और श्रद्धा से प्रेरित होकर, मैं अपने गुरु व्यास जी का स्मरण करता हूँ और अब उस अमृतमयी कथा का वर्णन कर रहा हूँ —
जो सभी पापों का नाश करने वाली, और भगवान शिव की महिमा से ओतप्रोत शिव पुराण है।”

यह ग्रंथ वेदांत का सार है — यही परलोक में कल्याण देने वाला है, यही अधर्म का नाश करने वाला है।
इसमें भगवान शिव की लीला, यश, और भक्ति से जुड़े विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इन चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला यह पुराण अपने प्रभाव से सदा विस्तार को प्राप्त करता है।


सूत जी कहते हैं:
“कलियुग में जब मनुष्य अधर्म में लिप्त होकर पतन की ओर बढ़ता है,
तो शिव पुराण का श्रवण उसे श्रेष्ठ गति देता है।
इसका उदय होते ही कलियुग के दोषों का शमन होने लगता है।
यह ग्रंथ वेद के समान प्रमाणिक माना गया है और इसका प्रथम प्रवचन स्वयं भगवान शिव ने किया था।”


शिव पुराण के कुल बारह संहिताएँ हैं:

विद्येश्वर संहिता

रुद्र संहिता

विनायक संहिता

उमा संहिता

सहस्रकोटिरुद्र संहिता

एकादशरुद्र संहिता

कैलास संहिता

शतरुद्र संहिता

कोटिरुद्र संहिता

मातृ संहिता

वायवीय संहिता

धर्म संहिता

इन संहिताओं में श्लोकों की संख्या इस प्रकार है:


आगे बढ़ने से पहले मैं आपको एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहती हूँ —

ध्यान देने वाली बात ये है कि आज के समय में इन 12 में से केवल 7 संहिताएं ही उपलब्ध हैं।
ऐसा माना जाता है कि समय के साथ बाकी 5 संहिताएं या तो लुप्त हो गईं या शेष संहिताओं में ही विलीन कर दी गईं।
शास्त्रों में इसका स्पष्ट विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों की यही मान्यता है।”
अब आइए, आगे बढ़ते हैं और इन संहिताओं के नाम और उनमें समाए श्लोकों की संख्या पर एक नजर डालते हैं…”


विद्येश्वर संहिता में दस हजार श्लोक हैं। रुद्र संहिता, विनायक संहिता, उमा संहिता और मातृ संहिता प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं।
एकादश रुद्र संहिता में तेरह हजार, कैलाश संहिता में छः हजार, शतरुद्र संहिता में तीन हजार, कोटिरुद्र संहिता में नौ हजार,
सहस्रकोटिरुद्र संहिता में ग्यारह हजार, वायवीय संहिता में चार हजार तथा धर्म संहिता में बारह हजार श्लोक हैं।



सूत जी बताते हैं:
“मूल रूप में भगवान शिव ने इस पुराण को सौ करोड़ श्लोकों में रचा था।
बाद में सृष्टि की आवश्यकता अनुसार इसे महर्षि व्यास ने संक्षिप्त करते हुए
24,000 श्लोकों में सुव्यवस्थित किया।
आज जो शिव पुराण हमारे पास है, वह इन्हीं सात मुख्य संहिताओं में विभाजित है और इसका स्थान सभी पुराणों में चौथा है।”


यह शिव पुराण केवल ग्रंथ नहीं, बल्कि मोक्ष का साधन है।
यह अद्वैत वेदांत का प्रचारक है, निष्कपट धर्म का प्रतीक है, और शिवधाम प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग है।
यह श्रेष्ठ मंत्रों का संग्रह है, परमात्मा का गान है और
श्रद्धा से इसे पढ़ने या सुनने वाला व्यक्ति भगवान शिव का प्रिय बनकर परमगति को प्राप्त करता है।


सूत जी कहते हैं:
“यह ग्रंथ उन विद्वानों के लिए है जो ईर्ष्याहीन अंतःकरण रखते हैं।
इसका पाठ या श्रवण मनुष्य के हृदय को शुद्ध करता है और उसे शिव के समीप ले जाता है।
यह पुराण संपूर्ण लोकों में सर्वश्रेष्ठ है और इसके दर्शन से ही पापों का नाश हो जाता है।”


विद्येश्वर संहिता तीसरा अध्याय

“श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता”

सूत जी के वचन सुनकर सभी महर्षि बोले —
“भगवन्, कृपया आप वेदों के समान, अद्भुत और पुण्य देने वाली शिव पुराण की कथा हमें सुनाइए।”

सूत जी ने कहा:
“हे महर्षियों!
आप सभी भगवान शिव का स्मरण करके वेदों के सार से प्रकट शिव पुराण की अमृतमयी कथा को ध्यान से सुनिए।
इस पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का वर्णन किया गया है।”

“जब सृष्टि की शुरुआत हुई,
तब छह कुलों के महर्षि आपस में विवाद करने लगे कि कौन-सी वस्तु उत्तम है और कौन नहीं।
जब विवाद बहुत बढ़ गया,
तो वे सभी अपनी शंका का समाधान जानने के लिए अविनाशी ब्रह्मा जी के पास गए
और हाथ जोड़कर बोले —
‘हे प्रभु! आप संपूर्ण जगत को धारण करते हैं और उसका पालन करते हैं।
कृपया हमें बताइए कि *संपूर्ण तत्वों से परे, परम पुरुष कौन हैं?’”

ब्रह्मा जी ने कहा:
“ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र आदि देवताओं से युक्त संपूर्ण जगत,
भूतों और इंद्रियों सहित सबसे पहले प्रकट हुआ है।
ये सभी देव महादेव से ही उत्पन्न हुए हैं।
वे सर्वज्ञ और संपूर्ण हैं।
भक्ति से ही उनका साक्षात्कार होता है,
किसी और उपाय से उन्हें नहीं जाना जा सकता।
जो मनुष्य भगवान शिव में अटूट भक्ति करता है,
वह संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।
भक्ति से ही देवता की कृपा प्राप्त होती है।”

“जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज उत्पन्न होता है,
उसी तरह भगवान शंकर की कृपा से
विद्या का सार, साध्य और साधन का ज्ञान प्राप्त होता है।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए
आप सभी ब्रह्मर्षियों को धरती पर सहस्रों वर्षों तक यज्ञ करना चाहिए।”

“शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है और
उनकी सेवा ही साधन है।
जो मनुष्य बिना किसी फल की कामना किए भक्ति करता है,
वही सच्चा साधक होता है।
अपने कर्मों से मिले फलों को भगवान शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही
भगवान की प्राप्ति और मोक्ष पाने का उपाय है।”

“महेश्वर ने ही भक्ति के इन साधनों को बताया है:

श्रवण –

कीर्तन –

मनन –

कान से भगवान के नाम, गुण और लीलाओं को सुनना — यही श्रवण है।

वाणी से उनका गुणगान करना — यही कीर्तन है।

मन में उनका चिंतन करना — यही मनन है।
इन साधनों से सभी मनोरथ पूरे होते हैं।”

“हम जिन वस्तुओं को अपनी आँखों से देख सकते हैं,
उनकी ओर आकर्षण स्वाभाविक होता है।
पर जो वस्तुएं प्रत्यक्ष नहीं दिखतीं,
उन्हें पाने के लिए हमें सुनकर और समझकर ही प्रयास करना होता है।
इसलिए श्रवण ही पहला साधन माना गया है।”

“श्रवण द्वारा जब कोई विद्वान गुरु के मुख से तत्वज्ञान सुनता है,
तो उसे कीर्तन और मनन की शक्ति और सिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है।
मनन करते रहने से
धीरे-धीरे भगवान शिव से साक्षात्कार होता है और लौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।”

“भगवान शिव की पूजा, उनके नामों का जाप,
और उनके रूप, गुण और लीलाओं का हृदय में चिंतन करना ही मनन कहा गया है।
महेश्वर की कृपा से प्राप्त यह साधन ही सबसे प्रमुख साधन है।”


चौथा अध्याय

“सनत्कुमार-व्यास संवाद”

सूत जी कहते हैं :- हे मुनियो! इस साधन का माहात्म्य बताते समय मैं एक प्राचीन वृत्तांत का वर्णन करूंगा, जिसे आप ध्यानपूर्वक सुनें।

बहुत पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्य के समान तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान सनत्कुमार वहां जा पहुंचे। मेरे गुरु ध्यान में मग्न थे।
जागने पर अपने सामने सनत्कुमार जी को देखकर वे बड़ी तेजी से उठे और उनके चरणों का स्पर्श कर उन्हें अर्घ्य देकर योग्य आसन पर विराजमान किया। प्रसन्न होकर सनत्कुमार जी गंभीर वाणी में बोले – मुनि तुम सत्य का चिंतन करो ।
सत्य तत्व का चिंतन ही श्रेय प्राप्ति का मार्ग है। इसी से कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। यही कल्याणकारी है। यह जब जीवन में आ जाता है, तो सब सुंदर हो जाता है। सत्य का अर्थ है- सदैव रहने वाला । इस काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सदा एक समान रहता है ।

सनत्कुमार जी ने महर्षि व्यास को आगे समझाते हुए कहा, महर्षे! सत्य पदार्थ भगवान शिव ही हैं। भगवान शंकर का श्रवण,
कीर्तन और मनन ही उन्हें प्राप्त करने के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे अनेकानेक साधनों के भ्रम में पड़ा घूमता हुआ तपस्या करने मंदराचल पर जा पहुंचा।
कुछ समय बाद महेश्वर शिव की आज्ञा से सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी नंदिकेश्वर वहां आए और स्नेहपूर्वक मुक्ति का साधन बताते हुए बोले भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति का स्रोत है। यह बात मुझे स्वयं देवाधिदेव भगवान शिव ने बताई है। अतः तुम इन्हीं साधनों का अनुष्ठान करो ।

व्यास जी से ऐसा कहकर अनुगामियों सहित सनत्कुमार ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार इस उत्तम वृत्तांत का संक्षेप में मैंने वर्णन किया है।

ऋषि बोले :- सूत जी! आपने श्रवण, कीर्तन और मनन को मुक्ति का उपाय बताया है,

किंतु जो मनुष्य इन तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य कैसे मुक्त हो सकता है ? किस कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है?


पाचवाँ अध्याय :शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व

सूत जी कहते हैं :– हे शौनक जी! श्रवण, कीर्तन और मनन जैसे साधनों को करना प्रत्येक के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए योग्य गुरु और आचार्य चाहिए। गुरुमुख से सुनी गई वाणी मन की शंकाओं को दग्ध करती है।
गुरुमुख से सुने शिव तत्व द्वारा शिव के रूप-स्वरूप के दर्शन और गुणानुवाद में रसानुभूति होती है। तभी भक्त कीर्तन कर पाता है। यदि ऐसा कर पाना संभव न हो, तो मोक्षार्थी को चाहिए कि वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके रोज उनकी पूजा करे।
इसे अपनाकर वह इस संसार सागर से पार हो सकता है। संसार सागर से पार होने के लिए इस तरह की पूजा आसानी से भक्तिपूर्वक की जा सकती है। अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार धनराशि से शिवलिंग या शिवमूर्ति की स्थापना कर भक्तिभाव से उसकी पूजा करनी चाहिए।
मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना कर उत्सव का आयोजन करना चाहिए तथा पुष्प, धूप, वस्त्र, गंध, दीप तथा पुआ और तरह-तरह के भोजन नैवेद्य के रूप में अर्पित करने चाहिए।
श्री शिवजी ब्रह्मरूप और निष्कल अर्थात कला रहित भी हैं और कला सहित भी मनुष्य इन दोनों स्वरूपों की पूजा करते हैं। शंकर जी को ही ब्रह्म पदवी भी प्राप्त है। कलापूर्ण भगवान शिव की मूर्ति पूजा भी मनुष्यों द्वारा की जाती है और वेदों ने भी इस तरह की पूजा की आज्ञा प्रदान की है।

सनत्कुमार जी ने पूछा :- हे नंदिकेश्वर ! पूर्वकाल में उत्पन्न हुए लिंग बेर अर्थात मूर्ति की उत्पत्ति के संबंध में आप हमें विस्तार से बताइए।

नंदिकेश्वर ने बताया :– मुनिश्वर ! प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध हुआ तो उनके बीच स्तंभ रूप में शिवजी प्रकट हो गए। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वीलोक का संरक्षण किया। उसी दिन से महादेव जी का लिंग के साथ-साथ मूर्ति पूजन भी जगत में प्रचलित हो गया।
अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट फल प्रदान करने वाली थी। परंतु शिवजी के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं।

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